27 फरवरी चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथी पर जाने उनके जीवन से जुडी कुछ महत्वपुर्ण बाते
चंद्रशेखर आजाद

जीवन परिचय-
जन्म-23 जुलाई 1960
मृत्यु-27 फरवरी 1931
पिता का नाम- पंडित सीताराम तिवारी
माता का नाम- जगरानी देवी
आजाद के मन में देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसी भावना के चलते उन्होंने 15 साल की आयु में ही असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और इसी आंदोलन यह समय वहां पहली और आखरी बार गिरफ्तार हुए थे।
चंद्रशेखर आजाद बचपन से बहुत ही सुंदर थे।चंद्रशेखर आजाद बचपन से बहुत साहसी थे।आजाद अपनी मां के लाडले थे तथा वहां अपने पिता से बहुत डरते भी थे।
एक बार चंद्रशेखर आजाद ने आम के बाप से कुछ आम चुरा लिए थे और उस बाग की रखवाली उनके पिता करते थे जब उनको यहां बात पता चली तो उन्होंने चंद्रशेखर आजाद को बहुत मारा था इसी कारण वहां अपने पिता से बहुत डरते थे।
मुंबई के व्यस्त जीवन को छोड़कर शेखर बनारस आ गए और पुनः अपनी शिक्षा प्रारंभ की।
यहां एक धर्मार्थ संस्था में प्रवेश लेकर संस्कृत पढ़ना शुरू कर दिया।
इस दौरान वे पुस्तकालय में जाकर अखबार पढ़ते और राष्ट्रीय हल चलो की सूचना रखने लगे।
इन्हीं दिनों असहयोग आंदोलन अपने जोरों पर था, चंद्रशेखर के मन में जो देश प्रेम की चिंगारी सुलग रही थी उसे हवा मिल गई और उसने आप का रूप ले लिया।
उन्होंने भी 1921 मैं, 15-20 विद्यार्थियों को इकट्ठा करके उनके साथ एक जुलूस निकाला। इन सब की आयु 13 से 15 वर्ष के बीच थी जिसका नेतृत्व स्वयं चंद्रशेखर कर रहे थे।
चन्द्रशेखर आजाद को जब असहयोग आंदोलन के बाद जज के सामने पेश किया गया तो जज के सवालों के जवाब चंद्रशेखर आजाद ने कुछ इस तरह दिये
1.तुम्हारा नाम क्या है?-मजिस्ट्रेट ने पूछा।
बालक ने निर्भीकता के साथ रोबिली आवाज में कहा-आजाद।
जज ने बालक को ऊपर से नीचे तक देखा और दूसरा सवाल किया,
2.तुम्हारे पिता का नाम क्या है?
बालक ने उसी मुद्रा में जवाब दिया-स्वतंत्र
उनके इस सवाल से जज झल्ला गया और क्रोध में आकर तीसरा सवाल किया-
3.तुम्हारा घर कहां है?
बालक ने उसी साहस के साथ कहा-जेल खाना
चंद्रशेखर के इन सवालों के जवाब सुनकर जज ने क्रोध में आकर 15 साल के बच्चे को 20 कोड़े की सजा सुनाई।
कोड़े लगाने के लिए जब उन्हें जेल में लाया गया तो उन्हें बाधा जाने लगा तो उन्होंने कहा मुझे बिना बांधे ही कोड़े लगा जब उन्हें कोड़े लगाने लगे तो वहां हर एक कोड़े के साथ भारत माता की जय इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे।
काकोरी कांड 9 अगस्त 1925-
सबसे पहले यह निश्चित किया गया की गाड़ी को लूटा कहां पर जाए। पहले यह निर्णय लिया गया कि गाड़ी जब किसी स्टेशन पर खड़ी हो तो खजाने के थैले लुटे जाए, लेकिन यहां योजना उचित नहीं लगी और यह निर्णय लिया गया कि चलती गाड़ी की चेन खींचकर किसी सुनसान स्थान पर गाड़ी रोकी जाए और फिर खजाने को लूट लिया जाए।
इस योजना में मुख्य रूप से राम प्रसाद बिस्मिल, सचिंद्र नाथ बक्शी, चंद्रशेखर आजाद, और राजेंद्र लाहिड़ी शामिल थे।यहां सब उस गाड़ी में जाकर बैठ गए जिस गाड़ी को लूटने की योजना इन्होंने बनाई थी।गाड़ी जैसे ही सिग्नल के पास पहुंची बख्शी ने साथियों को इशारा किया और अशफाक व राजेंद्र ने गाड़ी की चेन खींच दी।
गाड़ी रुकने पर गार्ड ने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारे जैसों का बक्सा स्टेशन पर ही रह गया और इतना कहकर वे गार्ड के करीब गए। गार्ड को कब्जे मैं लेकर अशफाक ने तिजोरी तोड़ने का कार्य किया और मुख्य नेतृत्व बिस्मिल ने संभाला यहां कांड ब्रिटिश शासन की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और उन्होंने इनका क्रांतिकारियों को हर जगह ढूंढने का कार्य शुरू कर दिया किंतु सफलता ना मिली।
आजाद का भगत सिंह से मिलना भगत सिंह बहुत पहले ही चंद्रशेखर आजाद से मिलना चाहते थे।वह दोनों ही एक दूसरे की विचारधारा से परिचित है और और एक दूसरे से भेंट करना चाहते थे।
जब भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद एक दूसरे के सामने आए तो उस प्रकार की स्थिति को गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस प्रकार वर्णित किया:-कैसा संयोग है कि दो दीवाने, जो एक दूसरे के सहयोग और साक्षात्कार के लिए आतुर-लालायित है। एक दूसरे के समक्ष उपस्थित हैं। कुछ ही समय में दोनों एक दूसरे से ऐसे घुल मिल गए जैसे वर्षों से परिचित हैं।इस समय क्रांतिकारी संगठन को आगे बढ़ाने के लिए दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता थी।
शहादत-
आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर मिलते ही पुलिस इंस्पेक्टर ने पुलिस फोर्स के साथ पार्क को घेर लिया।
आजाद अपने साथी सुखदेव को वहाँ से भगाकर खुद मोर्चा संभाल लेते है। इसी दौरान एक और गोली उनके दाँये फेंफड़े में लग जाती है। वे पूरी तरह से लहुलुहान पुलिस दल का सामना करते है।
वे नॉट बाबर को लक्ष्य करके गोली चलाते है और उसकी गाड़ी का मोटर एक ही गोली से चूर कर देते है। उन्होंने किसी भी भारतीय सिपाही पर गोली नहीं चलायी।खून से लथपथ आजाद ने एक पेड़ का सहारा लेकर लगभग आधे घंटे तक अकेले पुलिस फोर्स से मोर्चा लिया।
इतने गंभीर समय में भी आजाद को यह याद था कि वह कितनी गोली खर्च कर चुके है। उन्हें याद था कि उनके पास अब सिर्फ एक ही गोली बची है साथ ही जीते जी कैद न होने की अपनी कसम भी याद थी। खून से लथपथ आजाद ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल रखी और स्वंय को इन सभी बंधनों से आजाद कर लिया। अपने इन शब्दों को खुद ही सार्थक कर गये
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