भारत मां के वीर सपूत और युवाओं के दिलों की धड़कन भगत सिंह का जीवन परिचय:
भगत सिंह का जीवन परिचय-
भारत मां के वीर सपूत भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को ललायपुर जिले के बंगा गांव में हुआ जो अब वर्तमान में पाकिस्तान में है। भगत सिंह के पिता का नाम किशन सिंह तथा माता का नाम विद्यावती था। इनके जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत और स्वर्ण सिंह जेल में थे। भगत सिंह का जन्म एक परिवार में हुआ था।भगत सिंह का परिवार एक आर्य समाजी सिख परिवार था।
पांच भाई और तीन बहने थी।इन के सबसे बड़े भाई जगत सिंह की मृत्यु 11 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी। अपने सभी भाई बहनों में भगत सिंह तेज बुद्धि वाले थे।
खूबी थी वहां बहुत जल्दी अपने मित्र बना लेते थे उनकी इसी खूबी की वजह से उनके मित्र उनको बहुत चाहते थे।
सिंह सामान्य बच्चों की तरह नहीं थे उन्हें नदियों का कल कल स्वर व चिड़ियों का चहचहाना बहुत पसंद था। भगत सिंह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि के धनी थे।
वे जो एक बार पाठ याद कर लेते थे उसे कभी नहीं भुुलते थे।भगत सिंह को आगे की पढ़ाई के लिए दयानंद एंग्लो स्कूल में प्रवेश दिलाया गया।
इसी स्कूल से उन्होंने अपनी मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की। इस समय असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए भगत सिंह ने अपना स्कूल छोड़ दिया।
इसके बाद उन्होंने कालेज की पढ़ाई के लिए लाहौर के नेशनल कांग्रेस कॉलेज में एडमिशन लिया। इसी कॉलेज में उनकी पहचान सुखदेव, यशपाल और जयप्रकाश गुप्ता से हुई, जो उनके बहुत करीबी मित्र माने जाते थे।
भगत सिंह के द्वारा की गई क्रांतिकारी गतिविधियां
जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय भगत सिंह करीब 12 वर्ष के थे।
जलियांवाला बाग हत्याकांड की सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंच गए, एवं जलियावालाबाग पहुंच कर वहां पर खून से सनी हुई मिट्टी को प्रणाम किया और खून से सनी हुई मिट्टी को घर में लाकर रोज उसके ऊपर फूल चढ़ाने लगे।
इसी समय गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन को रद्द करने के कारण भगत को बहुत रोष उत्पन्न हुआ।
उन्होंने जो लोगों में भाग लेना प्रारंभ किया तथा कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बने।
उनके दल के प्रमुख क्रांतिकारियों में चंद्रशेखर आजाद सुखदेव राजगुरु इत्यादि थे।
भगत सिंह द्वारा हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना
काकोरी कांड में 4 क्रांतिकारियों को फांसी और 16 अन्य को कारावास की सजा उसे भगत इतने अधिक क्रोधित हुए कि उन्होंने 1928 में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
भगत सिंह द्वारा लाला लाजपत राय की मृत्यु का प्रतिशोध
1928 में साइमन कमीशन के विरोध में भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज किया।
इस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय की की मौत हो गई। लाला लाजपत राय की मौत की खबर सुन सिंह से रहा न गया।
तथा उन्होंने एक गुप्त योजना के तहत पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट को मारने की योजना सोची।सोची गई योजना के अनुसार भगत और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे।
उधर जय गोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वह खराब हो गई हो।
जय गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गए।वहीं दूसरी और चंद्रशेखर आजाद पास के डीएवी स्कूल की चारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
17 दिसंबर 1928 को करीब 4:15 बजे एएसपी सांडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीने उसके सर में मारी जिसके तुरंत बाद वहां होश खो बैठे।
इसके बाद भगत सिंह ने तीन चार गोली उसके सीने में मार कर उसके मरने का पूरा इंतजाम कर दिया।यह दोनों जैसे ही भागने लगे एक सिपाही चंदन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दीया।
चंदन सिंह को चंद्रशेखर आजाद ने सावधान किया और कहा कि अगर आगे बढ़े तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।
चंद्रशेखर आजाद की बात नहीं मानने पर चंद्रशेखर आजाद में सिपाही चंदन सिंह को गोली मार दी।
और इस तरह उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया
असेंबली में बम फेंकना
भगत अंग्रेजों तक उनकी आवाज पहुंचाना चाहते थे लेकिन वहां यहां चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो।
भगत और बटुकेश्वर दत्त द्वारा 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेंबली में एक ऐसे स्थान पर बम फेंकने की योजना बनाई जहां कोई मौजूद नहीं था।
इस योजना के तहत दोनों ने केंद्रीय असेंबली में बम फेंका और पूरा हाल दोहे से भर गया।
भगत सिंह चाहते तो वहां से भाग सकते थे लेकिन उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दंड स्वीकार है-
भले ही वहां फांसी ही क्यों ना हो अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया।
असेंबली में जब बम फेंका गया तब भगत और बटुकेश्वर दत्त दोनों खाकी कमीज तथा लिखकर पहले हुए थे।
बम फटने के तुरंत बाद उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद, और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाया, और अपने साथ लाए हुए पर्चे हवा में उछाल दिए।
इसके कुछ ही देर बाद वहां पुलिस आई और इन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को दी गई फांसी की सजा
26 अगस्त 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया।
7 अक्टूबर 1930 को अदालत के द्वारा दिए गए निर्णय में भगत सिंह सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई।
तीनों को फांसी की सजा सुनाने के बाद लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।
२३ मार्च 1931 को शाम के करीब 7:33 पर भगत तथा उनके दो साथियों सुखदेव राजगुरु को फांसी दे दी गई।
फांसी पर जाने से पहले भगत सुखदेव और राजगुरु से उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वहां लेनिन की जीवनी पढ़ रहे हैं और उन्हें वहां पूरी करने का समय दिया जाए
जब उन्हें फांसी पर ले जाया जाने लगा तो उन्होंने कहा-ठहरीये! पहले एक क्रांतिकारी को दूसरे कांति कार्य से मिल तो लेने दो।
फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे-
मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे।
मेरा रंग दे बसंती चोला, माय रंग दे बसंती चोला।
इसी गीत को गाते हुए भगत सुखदेव और राजगुरु तीनों ने फांसी के फंदे को चूमा और शहीद हो गए।
इन तीनों की फांसी के बाद कहीं आंदोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने उनके मृत शरीर के टुकड़े किए, और फिर उन्हें बोरी में भरकर घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही जलाया जाने लगा।
गांव के लोगों ने जब आप जलती हुई देखी तो वहां और आपकी तरफ दौड़े यहां देख अंग्रेजों को डर लगा और उन्होंने अधजले टुकड़ों को सतलज नदी में फेंक दिया।
तब गांव वालों ने उनके अधजले टुकड़ों को एकत्रित किया और उनका विधिवत दाह संस्कार किया।
और इसी के साथ भगत हमेशा के लिए अमर हो गए।
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